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खेचळ / सुनील गज्जाणी
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लुगाई, सूखै कूंवै मांय बार-बार
बाल्टी घाल‘र पाणी काढण रौ खेचळ करती ही।
किसाण,
बंजर खेत मांय बार-बार हळ चलावतौ हौ,
कै कठै खेत उपजाऊ होय जावै।
आदमी,
बार-बार आपरी छतड़ी खोलतौ हौ,
कै कठै छांट्या नीं होवण लाग जावै।
बूढै़ डोकरै रा पग कबर मांय लटक्या हा
पण सीखतौ बो वरणमाळा हौ।
उण टाबर री उमर ही-
पढण-लिखण अर खेलण-कूदण री
पण बण बो आदमी रह्यौ हौ।