उद्बोधन-1
( छंद 29 से 34 तक)
(29)
सुनु कान दिएँ , नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।।
सुखमंदिर सुंदर रूपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहिं रे।।
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहिं रे।
करू संग सुसील सुसंतन सों, तजि क्रूर , कुपंथ कुसाथहि रे।।
(30)
सुत, दार, अगारू ,सखा, परिवारू बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहिं रे।।
नरदेह कहा, करि देखु बिचारू, बिगारू गँवार न काजहिं रे।।
जनि डोलहि लोलुप कूकरू ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहिं रे।।