Last modified on 10 मई 2011, at 09:26

काशी में महामारी/ तुलसीदास/ पृष्ठ 5

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:26, 10 मई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


 
विविध-2

( छंद 179, 180, 181)


(179)
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो।।

कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चटि दिवारीको दीयो।।

(180)

कुंकुम -रंग सुअंग जितो, मुखचंदसों चंदसों होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच -बिषाद हरी है।।

गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है।
 पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है।।

(181)

मंगल की रासि, परमारथ की खानि जानि
 बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है।

प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर,
मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है।ं

 छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल,
 भलो कियो खलको , निकाई सो नसाई है।।

 पाहि हनुमान! करूनानिधान राम पाहि!
कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है।।