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काशी में महामारी/ तुलसीदास/ पृष्ठ 4
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काशी में महामारी-4
( छंद 175, 176)
(175)
लोगनि के पाप कैंधौं ,सिद्ध-सुर-साप कैंधौं,
कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई हैं।
ऊँचे, नीचे , बीचके, धनिक,रंक, राजा, राय,
हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है।
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।
करूनानिधान हनुमान बीर बलवान!
जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है।।
(176)
संकर -सहर सर, नरनारि बारिचर,
बिकल ,सकल, महामारी माजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात जल-थल मीचुमई है।
देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित,
बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाइ रधुराज! पहि कपिराज रामदूत!
राामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है।।