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छींक / उदय प्रकाश

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ज़िल्लेइलाही

शहंशाह-ए-हिंदुस्तान

आफ़ताब-ए-वक़्त

हुज़ूर-ए-आला !


परवरदिगार

जहाँपनाह !


क्षमा कर दें मेरे पाप ।


मगर ये सच है

मेरी क़िस्मत के आक़ा,

मेरे ख़ून और पसीने के क़तरे-क़तरे

के हक़दार,

ये बिल्कुल सच है


कि अभी-अभी

आपको

बिल्कुल इंसानों जैसी

छींक आयी ।