Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 23:43

छींक / उदय प्रकाश

ज़िल्लेइलाही
शहंशाह-ए-हिंदुस्तान
आफ़ताब-ए-वक़्त
हुज़ूर-ए-आला !

परवरदिगार
जहाँपनाह !

क्षमा कर दें मेरे पाप ।

मगर ये सच है
मेरी क़िस्मत के आक़ा,
मेरे ख़ून और पसीने के क़तरे-क़तरे
के हक़दार,
ये बिल्कुल सच है

कि अभी-अभी
आपको
बिल्कुल इंसानों जैसी
छींक आयी ।