(28)
राग केदारा
सङ्कर-सिख आसिष पाइकै |
चले मनहि मन कहत बिभीषन सीस महेसहि नाइकै ||
गये सोच, भए सगुन, सुमङ्गल दस दिसि देत देखाइकै |
सजल नयन, सानन्द हृदय, तनु प्रेम-पुलक अधिकाइकै ||
अंतहु भाव भलो भाईको, कियो अनभलो मनाइकै |
भै कूबरकी लात, बिधाता राखी बात बनाइकै ||
नाहित क्यों कुबेर घर मिलि हर हितु कहते चित लाइकै |
जो सुनि सरन राम ताके मैं निज बामता बिहाइकै ||
अनायास अनुकूल सूलधर मग मुदमूल जनाइकै |
कृपासिन्धु सनमानि, जानि जन दीन लियो अपनाइकै ||
स्वारथ-परमारथ करतलगत, श्रमपथ गयो सिराइकै |
सपने कै सौतुक, सुख-सस सुर सीञ्चत देत निराइकै ||
गुरु गौरीस, साँइ सीतपति, हित हनुमानहि जाइकै |
मिलिहौं, मोहि कहा कीबे अब, अभिमत, अवधि अघाइकै ||
मरतो कहाँ जाइ, को जानै लटि लालची ललाइकै |
तुलसिदास भजिहौं रघुबीरहि अभय-निसान बजाइकै ||