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 भरत-सत्रुसूदन बिलोकि कपि चकित भयो है |
  राम-लषन रन जीति अवध आए, कैधौं मोहि भ्रम, 
  कैधौं काहू कपट ठयो है ||
  प्रेम पुलकि, पहिचानिकै पदपदुम नयो है |
  कह्यो न परत जेहि भाँति दुहू भाइन 
  सनेहसों सो उर लाय लयो है ||
  समाचार कहि गहरु भो, तेंहि ताप तयो है |
  कुधर सहित चढ़ौ बिसिष, बेगि पठवौं, सुनि 
  हरि हिय गरब गूढ़ उपयो है ||
  तीरतें उतरि जस कह्यो चहै, गुनगननि जयो है |
  धनि भरत! धनि भरत! करत भयो,
  मगन मौन रह्यो मन अनुराग रयो है ||
  यह जलनिधि खन्यो, मथ्यो, लँघ्यो, बाँध्यो, अँचयो है |
  तुलसिदास रघुबीर बन्धु-महिमाको सिन्धु 
  तरि को कबि पार गयो है ?||