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दिया भी याद का इसमें जला के रक्खा है / गुलाब खंडेलवाल

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दिया भी याद का इसमें जला के रक्खा है
दिल एक प्यार का मंदिर बना के रक्खा है

कभी तो हँस के, कभी तिलमिला के भी हमने
क़दम को उनके क़दम से मिला के रक्खा है

जहाँ किसीकी नज़र भी नहीं लगे उस पर
तुम्हारे प्यार को ऐसे छिपाके रक्खा है

ये सच है, सुर में सभी के मिलाया सुर हमने
मगर सितार भी मन का बचाके रक्खा है

न राह देखती आशा का दम ही घुट जाये
कहीं पे दिल में झरोखा बनाए रक्खा है

ज़हर को पीके भी होठों से बाँसुरी फूँकी
अँगूठा साँप के फन पर दबा के रक्खा है

जहाँ भी हमको मिली राह कोई जानी हुई
वहीं से पाँव को तिरछा हटाके रक्खा है

कोई तो ऐसा भी होगा जो फिर से देगा छेड़
जहाँ से साज को हमने बजाके रक्खा है!

कहो ये उनसे, तड़पते बहुत गुलाब हैं आज
उन्हें बहार ने काँटों पे लाके रक्खा है