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क़मज़र्फ़ दुनिया / अर्श मलसियानी

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यह दौरे खिरद है, दौरे-जुनूं इस दौर में जीना मुश्किल है,
अंगूर की मै के धोके में ज़हराब का पीना मुश्किल है.

जब नाखूने-वहशत चलते थे, रोके से किसी के रुक न सके,
अब चाके-दिले-इन्सानियत सीते हैं तो सीना मुश्किल है.

जो ‘धर्म’ पै बीती देख चुके ‘ईमां’ पै जो गुज़री देख चुके,
इस ‘रामो-रहीम’ की दुनिया में इनसान का जीना मुश्किल है

इक सब्र के घूँट से मिट जाती, सब तिश्‍नालबों की तिश्‍नालबी,
क़मज़र्फ़-ए-दुनिया के सदके यह घूँट भी पीना मुश्किल है.

वह शोला नहीं जो बुझ जाए आँधी के एक ही झोंके से,
बुझने का सलीका आसाँ है, जलने का क़रीना मुश्किल है.

करने को रफ़ू कर ही लेंगे दुनियावाले सब ज़ख़्म अपने,
जो ज़ख़्म दिले-इनसाँ पै लगा, उस ज़ख़्म का सीना मुश्किल है.

वह मर्द नहीं जो डर जाए, माहौल के ख़ूनी मंज़र से,
उस हाल में जीना लाज़िम है, जिस हाल में जीना मुश्किल है.

मिलने को मिलेगा बिल आख़िर ऐ ‘अर्श’ सुकूने-साहिल भी,
तूफ़ाने-हवाद से लेकिन बच जाए सफ़ीना मुश्किल है.