भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ / यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:49, 4 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रयाग शुक्ल |संग्रह=यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल }} टकरा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


टकराता ही रहता है वह पेड़,

दीवारों से,

मकान की ।


लिए हुए हरापन, परत धूल की,

बूँदें बारिश की । किरणें, चाँदनी ।

और हवा

जो दिखती है सबसे

पहले उस पर । टिकती हैं आँखें

दुखी-सुखी ।


देखो, देखो

पेड़ की रगों में भी बह रही

है वह कथा

जो इस वक़्त

तुम रहे हो सोच ।