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जासों प्रीति ताहि निठुराई / घनानंद

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कवित्त

जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
कैसे करि जिय की जरनि सो जताइये।
महा निरदई दई कैसें कै जिवाऊँ जीव,
बेदन की बढ़वारि कहाँ लौं दुराइयै।
दुख को बखान करिबै कौं रसना कै होति,
ऐपै कहूँ बाको मुख देखन न पाइयै।
रैन दिन चैन को न लेस कहूँ पैये भाग,
आपने ही ऐसे दोष काहि धौं लगाइयै।। 5 ।।