राजा ने अलग सुना :  
"जय देवी यश:काय 
वरमाल लिये 
गाती थी मंगल-गीत, 
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी, 
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फल सिरिस का 
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता 
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन 
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।  
रानी ने अलग सुना : 
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी -- 
तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र, 
मेखला किंकिणि -- 
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है 
प्यार अनन्य ! उसी की 
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को, 
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है 
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी । 
रानी 
उस एक प्यार को साधेगी ।  

सबने भी अलग-अलग संगीत सुना । 
इसको 
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का -- 
उसकी 
आतंक-मुक्ति का आश्वासन : 
इसको 
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक -- 
उसे 
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू । 
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि । 
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी । 
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन -- 
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की । 
एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ  
चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि । 
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें 
और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक । 
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये -- 
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल 
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की 
उसे युद्ध का ढाल : 
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन -- 
उसे प्रलय का डमरू-नाद । 
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई 
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल ! 
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे -- 
ओ रहे वशंवद, स्तब्ध : 
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी, 
संघीत हुई, 
पा गयी विलय ।  

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