ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत । 
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥ 
तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय । 
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥ 
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय । 
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥ 
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर । 
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥ 
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार । 
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥ 
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन । 
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥ 
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । 
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥ 
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय । 
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥ 
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । 
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥ 
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय । 
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥ 
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । 
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥ 
पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार । 
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥ 
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय । 
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥ 
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय । 
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥ 
बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय । 
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥ 
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय । 
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥ 
बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम । 
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥ 
बानी से पहचानिए, साम चोर की घात । 
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥ 
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर । 
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥ 
मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय । 
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥ 
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश । 
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥ 
भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग । 
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥ 
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । 
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥ 
मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ । 
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥ 
माली आवत देख के, कलियान करी पुकार । 
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥ 
मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय । 
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥ 
ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं । 
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥ 
या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ । 
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥ 
राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास । 
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥ 
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 
हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥ 
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय । 
जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥ 
संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय । 
कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥ 
साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय । 
ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥ 
साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय । 
चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥ 
संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक । 
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥ 
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय । 
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥ 
लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं । 
एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥ 
हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह । 
सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥ 
ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार । 
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥ 
ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह । 
निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥ 
क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात । 
कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥ 
राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं । 
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥ 
बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार । 
जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥ 
ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव । 
दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥ 
सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग । 
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥ 
कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष । 
स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥ 
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । 
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥ 
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ । 
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥ 
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप । 
बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥ 
कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव । 
सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥ 
कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ । 
फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥ 
लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार । 
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥ 
बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ । 
राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥ 
यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं । 
लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥ 
अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां । 
के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥ 
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं । 
लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥ 
अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि । 
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥ 
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त । 
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥ 
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ । 
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥ 
कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त । 
बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥ 
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे । 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥ 
परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ । 
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥ 
पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ । 
लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥ 
हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान । 
 
काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥ 
जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ । 
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥ 
पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई । 
आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥ 
दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ । 
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥ 
भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ । 
मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥ 
कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ । 
एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥ 
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ । 
नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥ 
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं । 
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥ 
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत । 
जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥ 
जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव । 
कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥ 
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत । 
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥ 
कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि । 
कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥ 
भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि । 
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥ 
परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि । 
खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥ 
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं । 
दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥ 
ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना । 
 
ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥ 
कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद । 
नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥ 
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ । 
राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥ 
स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास । 
राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥ 
इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम । 
स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥ 
ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं । 
उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥ 
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ । 
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥ 
कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई । 
दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥ 
कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार । 
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥ 
तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ । 
रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥ 
चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि । 
फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥ 
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम । 
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥