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नव स्पर्श से! / सरस्वती माथुर

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मेरे सपनों के जंगल में
मैं लगातार देख रही थी
झुण्ड के झुण्ड झरे पत्ते
यूँ लग रहे थे
मानों हार गये हों युद्ध
अपनी चरमराती आवाज में
उड़ जाने को तैयार
पार्श्व में दिख रहा था
अभिलाषाओं से भरा जीवन
और तभी नींद टूट गयी
अपने नव स्पर्श से
छू रही थी मुझे भोर
और फिर एकाएक
मेरे सपने पृथ्वी हो गये
चक्कर काटने लगे
अभिलाषाओं के उदित होते
सूर्य के चारों ओर!