भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आग और ढलान / प्रमोद कौंसवाल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 25 अक्टूबर 2011 का अवतरण
तुम क्या लेकर आए
पानी आसमान अंगोरा
आए हो हिमाचल
कुछ तो लाए होते इन सबको छोड़कर
जवानी के दिनों की स्मृतियों को
जहाँ एक पहाड़ी नौजवान
पढ़ा-लिखा रहा है पहाड़ी बच्चों को
तुम्हारे चश्मे पर हरे रंग की स्मृतियाँ
तरंगों की तरह फैलती नहीं दिखती अगर
तुम इस रंग को भींच लाते
रेखा की मुठ्ठियों से
तुम्हारे घर को
एक रास्ता ऐसा तो जाता ही होगा
जहाँ पुराने पीपल
और लैंटिन की झाड़ियों के सूखे पत्ते गिरे वहाँ से
पुराने किसी पत्थर में बैठकर
तुमने जो भी सोचा
हमसफ़र की तरह
साझा करो
बताओ वह आदमी
जो तुम ख़ुद थे ढलान से गिरते हुए
आए तो आए बचकर कैसे