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शब्दों के स्थापत्य के पार / विमलेश त्रिपाठी

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शब्दों के स्थापत्य के पार हर शाम
घर के खपरैल से उठती हुई एक उदास कराह है
एक पफाग है भूली बिसरी
एक सिनरैनी है होते होते थम गयी
विदेसिया नाच है पृथ्वी की कोख में कहीं गुम गया
और मैं हूँ एक दिन चला आया नादान
रोआईन-पराईन आँखों से दूर
यहाँ इतनी दूर एक बीहड़ में
शब्दों के स्थापत्य के पार
बेवशी के अर्थों से जूझती एक बेवशी है
सवाल हैं कुछ हर बार मेरे सामने खड़े
समय है अपने असंख्य रंगों के साथ
मुझे हर ओर से बांध्ता
और झकझोरता
कई चीखें हैं असहाय मुझे आवाज देती
हाथ से लगातार सरकते जा रहे
मासूम सपने हैं कुछ
शब्दों के स्थापत्य के पार
कुछ और शब्द हैं
अपने नंगेपन में बिलकुल नंगे
कुछ अध्ूरे वाक्य
स्मृतियों के खण्ड चित्रा की तरह
शब्दों के स्थापत्य के पार
कहीं एक अवध्ूत कोशिश है
आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने की
और एक लम्बी कविता है
यु( के शपथ और हथियारों से लैस
मेरे जन्म के साथ चलती हुई
निरन्तर और अथक।