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वही नहीं लिख पाया / विमलेश त्रिपाठी

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मैंने लिखा-कविता
और मैंने देखा
कि शब्द मेरी चापलूसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे हैं
मैंने लिखा-खेत
और मैंने पाया
कि मेरी कलम से शब्दों की जगह
गोल-गोल दाने झर रहे हैं
मैंने लिखा-अन्न
और मैंने महसूस किया
कि मेरी ध्मनियों में
लहू की जगह रोटियों की गन्ध् रेंग रही है
मैंने लिखा-आदमी
और मैंने सुना
कि चीख-चीख कर कई आवाजें
सहायता के लिए मुझे पुकार रही हैं
मैंने लिखा-पृथ्वी
और मुझे लगा
कि मेरे कन्ध्े किसी असहनीय भार से
लगातार झुकते जा रहे हैं
मैंने लिखा-ईश्वर
और मैं डर गया
कि कमरे के साथ मेज पन्ने और कलम
सभी किसी अज्ञात भय से थरथरा रहे हैं
इस तरह उस सुबह, बहुत कुछ लिखा मैंने
बस नहीं लिख पाया वही
जिसे लिखने के लिए रोज की तरह
सोच कर बैठा था