Last modified on 12 नवम्बर 2011, at 17:10

बात ऐसी तो नहीं थी / विमलेश त्रिपाठी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:10, 12 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमलेश त्रिपाठी |संग्रह=हम बचे रहे...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बात ऐसी तो नहीं थी
कि कोई कविता लिखी जाती
हम तीन थे
अपने को ढोते हुए सड़क के बीचो बीच
याद कर रहे थे अपने छूट गये घरों के नक्शे
तंग आ गए बूढ़े पिताओं के निरपराध् चेहरे
सड़क इतनी लम्बी थी कि इन्तजार थी
रात इतनी गहरी कि अन्ध्ी
एक जगह पहुँच जाने की व्यग्रता में
हम चल रहे थे एक दूसरे को सम्हाले
कदम हमारे हाँपफते हुए
हमारी थकी साँसे एक दूसरे को सहारा देती हुईं
तुम्हें क्या लगता है कल दुनिया यह बची रहेगी
µवह निराश था
आजकल अपनी प्रेमिका की जुल्पफों के
अँध्ेरे में मुझे डर लगता है
µदूसरा भयभीत
यार इतनी बड़ी दुनिया में कोई एक नौकरी नहीं
µमुझे रसोई घर के खाली डिब्बे याद आ रहे थे
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारे.....
अगले जन्म में मैं पेड़ बनूंगा
एक चिड़िया घोसला बनाएगी गाएगी बहुत ही मध्ुर स्वर में
दुनिया चाहे न बचे पेड़ तो बचे रहेंगे न
मैं नशे में हूँ यदि मर जाऊं तो क्या कहोगे मेरी प्रेमिका से
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारो....
क्या सचमुच दुनिया यह बची रहेगी
कितनी दारूण है यह कल्पना
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारो
हम एक पेड़ के नीचे बैठ गये थे
सड़क अन्तहीन
हमारे घर के दरवाजे लगभग बन्द
बात ऐसी तो न थी
कि कोई कविता लिखी जाती
दूर शायद मुर्गे ने बांग दिया था
रात नशे की तरह उतर चली थी
हम एक दूसरे की आँख में एकटक देखते हुए
एक अच्छी सुबह
कि किसी अनहोनी घटना का इन्तजार कर रहे थे
वैसे बात ऐसी तो नहीं थी
कि कोई कविता लिखी जाती....