भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उजाले की जीत / जितेन्द्र 'जौहर'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:18, 19 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जितेन्द्र 'जौहर' |संग्रह= }} <poem> मुख़...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुख़ालिफ़ हवाओं के बीच
आसान नहीं होता,
अँधेरे की महफ़िल में
रौशनी लिखना!

मगर वो नन्हा-सा दिया
रातभर लिखता रहा
पुरहौस...
रोशनी की इबारत
अँधेरे की छाती पर।

हवाएँ,
झपटती रहीं
उजास-उगलती लेखनी पर।

लेखनी डगमगायी,
फिर सँभली...
और जगमगायी!

दिये का संघर्ष देखते-देखते
मैं नींद के आगोश में
खो गया,
और चादर तानकर
सो गया।

सुबह,
जब आँख खुली
तो दिये की रोशन ‘पाण्डुलिपि’
सूरज के रूप में
प्रकाशित मिली!

उसका संदेश
कितना प्रखर था,
मौन होकर भी
मुखर था
कि-
अँधेरे के ख़िलाफ़ संघर्ष में
हमें हिम्मत नहीं खोनी है
क्योंकि-
जीत तो आख़िर
उजाले की ही होनी है!!