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सपने ! / रमेश रंजक

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पँखों भर आकाश बाँध कर
सपने ! बहुत बड़े हो जाते हैं
पर्वत सदृश खड़े हो जाते हैं

पल भर पहना कर
उजली पोशाक हमें
कर देते हैं स्थिति से
बेबाक हमें
सही आदमी के
शीशे के आदम से
बिना बात झगड़े हो जाते हैं

जब टूटे हम
गिरे अदृश्य पहाड़ी से
शाख सरीखे
कट कर किसी कुल्हाड़ी से
पूँजीकृत हरियाली खो कर
हम ख़ुद से
कुछ उखड़े-उखड़े हो जाते हैं