भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रविवारे मत आना / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:46, 26 दिसम्बर 2011 का अवतरण
मुझ निर्धन का धन है—
एक दिन
रविवारे मत आना
धीमी दिनचर्या के
आस-पास अपनापन
दर्पण का एक वचन
मुश्किल से मिलता है
साँचे का लौह-बदन
एक दिन पि-घ-ल-ता है
और किसी दिन चाहे आ जाना
मत आना, रविवारे मत आना