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एक टुकड़ा मन / रमेश रंजक

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मरने दे बन्धु !
उसे मरने दे

एक रोगी की तरह जो दोस्ती
रोज़ खाती है दवाई चार सिक्के की
और फिर चलती बड़े अहसान से
चाल इक्के की

जो अँगूठी
रोज़ उँगली में करकती है
उतरने दे

मोल के ये दिन, मुलाक़ातें गरम
सामने भर का घरेलूपन
चाय-सी ठंडी हँसी, आँखे तराजू,
एक टुकड़ा मन

खोलने इस बन्दगोभी को
एक दिन तो बात करने दे
मरने दे बन्धु ! अरे ! मरने दे