वाह सतगुरु, वाह सतगुरु, वाह सतगुरु वाह !
माह मारग में डरो-सो, फिरत व्याकुल बाबरो-सो,
काल-केहरि को सतायो जीव-कुंजर-नाह-
भूलो बोध-वन की राह।
आधि-आतप न रोक पाई, योनि-सरिता-तीर आयो,
जन्म, जीवन, मरण जा में, अमित आप अथाह-
आवागमन प्रबल प्रवाह।
आस-प्यास न रोक पाई, घुस परो धारा मझाई,
द्वन्द्व दल-दल माहिं जूझो, कर्म-बन्धन ग्राह-
कर आखेट को उत्साह।
करि कियो बलहीन अरिने, आपके उपदेश-हरिन,
धाय धरि छिन में छुड़ायो, मेट दारुण दाह-
‘शंकर’ कछु न राखी चाह।