पूनम, समुद्र और काल / बसन्तजीत सिंह हरचंद
दिन भर का
अशान्त कोलाहल
अपनी स्मृतियों में समेटे समुद्र ,
साँझ की पटाक्षेप - वेला में
टकटकी बांधे
शून्य ताक रहा था ,
जाने कहाँ था .
इतने में एकाएक
अप्सरा सरीखी च्न्द्रवर्णा पूनम
प्रकाश - गंगा के उज्ज्वल जल में नहा,
सामने के मटमैले निकाश पर
दुधिया चाँदनी मुस्काती प्रकट हुई .
समुद्र के सूने - सूने
नेत्रों में नेत्री की ऐसी छवि छाई,
आंतर की गहराइयों में
ऐसी समाई,
कि वह लुट गया;
धमनियों के रक्त में हलचल मच गई,
सुप्त पलकें खोलकर जाग उठे स्वप्न कई
प्रीति जगी नई - नई;
उसके हृदय का प्रेम हिल्लोल उठा
डोल उठा .
उसने उसे ऐसी अतृप्त दृष्टि से देखा
जो मानो गा रही हो ----
'मन पर लिख दो नाम सलोना ,
तुमको है मेरी ही होना .
नाम तुम्हारा
मन पर लिखना,
अन्धकार में
विद्युत् दिखना .
निज को पाना ,पर को खोना ,
मन पर लिख दो नाम सलोना .'
वह बार - बार
अपने सम्मोहित चित का
आकर्षण - रहस्य बूझता था ,
और कुछ न सूझता था ;
उसके मनस के प्रेम - प्रदीप्त आकाश पर
नेत्र - सुखदा - छवि छाई रही ,
भायी रही .
मुग्ध पूनम उसके
दर्पणी नेत्रों में अपनी छवि देख इतराती ,
हँसते - हँसते लोट - पोट हो जाती
लाज से मुँह बादल की ओढ़नी में छुपाती ;
छुपाकर पुन: झट
नटखट दृष्टियों से झाँकने लगती थी ,
ठगती थी .
आंतर के गहरे पातळ - तल से
सैंकड़ों दहकते चंचल चुम्बन
विस्तृत जल - वक्षस्थल को धक्के मार - मार ,
सुषमाहत नायक के
तप्त ओंठों पर आने के लिए मचल उठे ;
बड़े प्रेम से प्रेमावेग जगा
ठाठें मारने लगा .
उस परी- वेश परिवेश में
देही से चांदनियां छलछ्लाती ,
नभ - उज्ज्वला की
पूर्ण भरी गालों की फिसलती गोलाइयों को ,
चूमने के लिए उत्सुक
उसके हृदय में
मिलनेच्छा का क्षुभित हर तुच्छ तरंग
सिर उठा - उठाकर तनता था ;
हिमगिरी बनता था .
मन्मथ - मन्थन के ज्वार से मथे
उस हृदय में सहस्रों महाबली तूफ़ान
उन्मत्त थर्राते थे ,
घनघोर दहाड़ते दम्भी गर्जन
चीखते चीत्कारों में बदल - बदल जाते थे ;
उन आकर्षण-क्षणों में
प्रेम - पाश से खिंचे प्राण
निकल - निकल जाते थे ,
भर्राते थे .
आखेटक के गड्ढे में गिरे
आक्रोश में विश्व को रौंद
शव कर देने वाले विक्षिप्त कुञ्जर की भांति
वह मुँह से झाग बहाता ,
तटों से टक्करें मार - मार कर दहाड़ता
धरती - आकाश हिला के रख देता ,
शिलाओं का हृदय पिघल जाता
रात के सन्नाटे की चुप्पी भिद जाती,
छिद - छिद जाती .
अन्तरिक्ष के विस्तृत श्याम - पट पर
नक्षत्रों के अक्षरों से लिखी जाने योग्य
यह दु:ख - गीति
उसके प्रत्येक श्वास - प्रश्वास से
ध्वनित हो रही थी ----
'मेरे भी दिन कभी फिरेंगे ?
जलते जी पर जलद घिरेंगे ?
मेरा हर पल
सुख - उत्सुक है ,
जो सम्मुख है
वह तो दुख है ;
कब तक दुखते प्राण चिरेंगे ?
मेरे भी दिन कभी फिरेंगे ?'
चन्द्रसुता
प्रकाश की गौर पिंडलियों वाले ,
नग्न पांवों से
किनारे की शीतल रेत पर टहलती ,
उसकी तीखी नयन - नासिका - सुन्दरता
समुद्र को चीर के रख देती ,
उसने प्यार से उसका नाम 'पूनो' रखा था ,
रसिक सखा था .
चांदी के थाल सरीखे
चौड़े - मांसल कपोलों वाली नायिका,
मंद तारकों से काढ़े आँचर में
गोल तरुणाइया छुपाए
दूर से मुस्कराती रही ,
उसे अंक में भर लेने के लिए
पानी की सैकड़ों बेचैन आजानु भुजाएं
आकाश की ओर उठाए समुद्र ,
हा - हा करता हुआ हाहाकार करता रहा
जी - जीकर मरता रहा .
उग्र इच्छाएं विवशता - तट- चट्टानों से
सिर पीट - पटककर लौट आतीं,
उसके अथाह हृदय में शीतल शान्ति का जल
घर्षण - बाडव से जलता था,
प्रेम - प्लावन से
महाबाहो समुद्र थर - थर कांपता था ,
हांफता था .
फुत्कार रहीं लहरों के
फैलाए फनों पर पद धर नभ चढ़ती लहरें,
भरी भीड़ के कंधों पर पर कैसे ठहरें ?
बिछल - बिछल गिर
आवृत्त गर्तों के आवर्तों में पड़ती लहरें ,
बढती लहरें .
महाबली महाबाहो सहस्रबाहु समुद्र
ऊर्ध्वभुज तप उन्मुख रहा पर सिद्धि न मिली
उसके मन के अन्तरिक्ष में
यह मन्त्र - कविता मन्नत मांगती रही ----
'कभी आओ गाँव मेरे ,
चूम लूँ मैं पाँव तेरे ,
दृष्टियों से छिदे सारे
सूख जाएं घाव मेरे .'
दिनोदय समय
चाण्डाल चंडकाल - खलनायक द्वारा
केशों से खींचकर ले जाने पर,
झीनी पड़ गई सफेदी की साड़ी
हड़बड़ी में सँभालती;
महाश्वेता पूनम
घनों की सीढियां घिसटती चढती
चन्द्रलोक को चली गई .
उदात्त नायक
शोक के घनाघात से संज्ञा - शून्य था ,
प्रेम - ज्वर का ज्वार न जाने कहाँ गया ?
आकर्षण के तूफानों में उफान न था ,
वह हतप्रभ शान्त था ;
क्लान्त था ,
भ्रान्त था ..
(श्वेत निशा ,१९९१)