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गिर्दाब-ए-सियासत / रेशमा हिंगोरानी

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हमें गिर्दाब-ए-सियासत से बचाना लोगो,
हमें पेच-ओ-ख़म-ए-दुनिया का तजुर्बा ही नहीं…
न तो फुर्सत मिला करती है ग़म-ए-दौराँ से,
और कुछ अपनी तबीयत का भरोसा भी नहीं!

यूँ नहीं, कि
समझ न पा रहे हों कार-ए-जहाँ,
खूब है इल्म, औ’ पहचानते हैं सबकी नज़र,
उलझते रहते हैं बेशक़ रह-ए-पुर्खा़र-ए-जहाँ,
मगर हैं रखे हुए हम भी ज़माने की ख़बर!

हमें नादाँ न समझना कभी दुनिया-वालो,
हैं साज़िशों से तो, दानिस्ता निगह फेरे हुए,
जो हैं शिकस्ता, तो इसमें भी है रज़ा अपनी,
वग़र्ना इतने भी मासूम-ओ-सादा-लौह नहीं!

नहीं सुनते किसी की, ये भी है दुरुस्त मगर,
ये और बात, कि फ़ित्रत की ग़ुलामी की है!

दिल, कि रुमान के धागों में सदा उलझा रहे,
और जज़्बात के ही ताने-बाने बुनता रहे,

दिमाग-ओ-दिल में फ़ैसले कभी हुए ही नहीं!
कहाँ आसान है, अँजाम को पाना लोगो,
हमें गिर्दाब-ए-सियासत से बचाना लोगो!

06.02.1995