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गुल-ओ-ख़ार / रेशमा हिंगोरानी
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इश्क इक ख़ार<ref>काँटा</ref> की मानिंद<ref>जैसा</ref> ही तो था तब भी…
नोक़ पे जिसकी टिकाया था मैंने सारा जहाँ!
एक मीठी सी चुभन,
हाए, मगर फिर भी चुभन,
और तो कुछ भी न हासिल था वहाँ..
बस इक एहसास,
कभी चैन,
कभी दर्द लिए,
आज भी है वही तीखी सी चुभन…
और तो सब बदल गया है मगर,
इश्क इक ख़ार की मानिंद ही रहा है सदा!
1996
शब्दार्थ
<references/>