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खँडहर-ए-हयात / रेशमा हिंगोरानी

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मेरे टूटे हुए ख्वाबों के महल,
जहाँ तन्हाई जगा करती है,
औ’ मुस्कुराहटों में लिपटे हुए,
न जाने कितने बेशुमार अश्क
सोते हैं,
रिहाई नारसा है जिनके लिए !

और तो सब उजड गया है यहाँ,
बने हुए हैं आज भी उसी तरह लेकिन...
शजर गमों के,
और मस्सरतों
के वो खँडहर...
जिन्हें आँधी, न अश्क,
कोई हिला पाया कभी !

सुना है कोई शहँशाह
चाहता था कभी...
बनाना मक़्बरा यहाँ भी,
संग-ए-मर्मर का !

1996