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नज़्म की रज़्म / रेशमा हिंगोरानी
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उतर आए हैं आज,
सैफ़-ओ-कलम,
मक्तल में!
मुक़ाबिला है,
क़यामत का,
आज मक्तल में!
हैं सुखनवर के, तो गाज़ी के भी अंदाज़ नए!
कहीं खँजर हैं चल रहे, कहीं अलफ़ाज़ बहे!
जीत लोगों से सुना है सदा कलम को मिली,
आज पर लाम में,
न जाने क्यूँ,
खामोश खड़ी?
उम्मीद-ए-रजज़, में तो
उम्र निकल जाएगी,
कहाँ इस दौर में “गीता“
सुनाई जाएगी?
खून की सुर्खी, ही लगता है
सियाही होगी,
जंग अपने ही बल पे उसको
ये लड़नी होगी!
आज चुप रह के नहीं
वार कोई सहना है,
हर इक यलगार का,
जवाब उसको कहना है!
महाज़ में बहे
क्यूँ, फ़क़त
इंसाँ का लहू?
ज़ुबानी लफ़्ज़ों की,
फैलाएँगे,
नज़्मों का लहू!
हमें ताक़त को,
मुस्सन्निफ की,
बढ़ाना होगा,
वग़ा से होके
मुज्ज़फ्फ़र
उसे आना होगा!!
07.07.93