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निषिद्धोन्नति / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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रहोरे साधो,
उस उन्नति से दूर।
जिस के साथी लघु छाया के, उपजे ताड़ खजूर,
फलखौआ ऊँचे चढ़ते हैं, गिरे तो चकनाचूर।
जिस से मान बढ़े मूढ़ों का, पण्डित बने मजूर,
आदर पावे बास बसा की, ठोकर खाय कपूर।
जिस के द्वारा उच्च कहाये, कृपण, कुचाली, क्रूर,
मुक्ता बने न्याय-सागर के, हठ-सर के शालूर।
जिस के ऊँट नीचता लादें, यश चाहें भरपूर,
हा! ‘शंकर’ पापी बन बैठे, पुण्य-समर के शूर।