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मोक्ष मिलने में कठिनता / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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या भवसागर को तुम कैसे तर जाओगे भाई।
ठत बन्धन उत मुक्ति किनारो,
भौतिक तारतम्य भण्डारो,
प्रकृति-प्रभाव भरो जल खारी, विधि-गति-गहराई।
द्वन्द्व ज्वार-भाटा झकझोरें,
उमड़ें विविध विकार-हिलोरें,
जड़-चेतन संघात बतासे, छिटके छवि छाई।
कढ़त कर्म-फल फेन घनेरे,
घूमत भोग-भँवर बहुतेरे,
दुःख बडवानल ने धर खाई, सुख-सीतलताई।
काल-विभाग नाग फुँकारें,
योनि अनेक मगर मुख फारें,
अघदल कच्छ-मच्छ मिल घेरें, सुध-बुध बिसराई।
बूड़ मरे बलहीन विचारे,
साधक साधन कर-कर हारे,
लपकें तैरा तोबाधारी, पै न पार पाई।
ऊँचे योग-सिद्धि गिरि-टीले,
तिन पर ऊलें साधु अड़ीले,
गिरे गमाय पुण्य की पूँजी, फिर न हाथ आई।
धर्म धूम-बोहित बन आवे, ‘शंकर’ ज्ञान-मलाह चलावे,
तापर बैठ चलेंगे तबहू, पूरी कठिनाई।