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गर्दभ-दुर्दृष्य / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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घूरे पर घबराय रहा है,
देखो रे इस व्याकुल खर को!
और घने रासभ चरते थे, धँगने धार पेट भरते थे,
छोड़ इसे अनखाय कुम्हारी, सब को हाँक ले गई घर को।
आगे गुड़हर, घास नहीं है, गदली पोखर पास नहीं है,
हा ! पानी बिन तड़प रहा है, लोटे-पीटे इधर-उधर को।
लीद लपेटा विकल पड़ा है, चक्र काँच का निकल पड़ा है,
मूम कीच में उछल रही है, ओछी पूँछ डुलाय चमर को।
घायल घोर कष्ट सहता है, ठौर-ठौर शोणित बहता है,
मार मक्खियाँ भिनक रही है, काट रहे हैं कीट कमर को।
कुक्कुर तंगड़ तोड़ चुके हैं, वायस अँखियाँ फोड़ चुके हैं,
गीदड़ अंतड़ी काढ़ चुके हैं, अवगति ने बल-हीन किया है,
मींच घींच धर भींच रही है, खींच रही है प्रेत-नगर को।
जीवन खेल खिलाय चुका है, भोग-विलास बिलाय चुका है,
जीव-हंस अब उड़ जावेगा, त्याग पुराने तन-पंजर को।
ऐसा देख अमंगल इसका,कातर चित्त न होगा किस का,
तज अभिमान भजो रे भाई, करुणा-सिन्धु सत्य ‘शंकर’ को।