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कूटोक्ति / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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कुछ नहीं, कुछ में समाया कुछ नहीं,
कुछ न कुछ का भेद पाया, कुछ नहीं।
एकरस कुछ है नहीं कुछ दूसरा,
कुछ नहीं बिगड़ा, बनाया कुछ नहीं।
कुछ न उलझा, कुछ नहीं के जाल में,
कुछ पड़ा पाया, गमाया कुछ नहीं।
बन गया कुछ और से कुछ और ही,
जान कर कुछ भी जनाया कुछ नहीं।
कुछ न मैं, तू कुछ नहीं, कुछ और है,
कुछ नहीं अपना, पराया कुछ नहीं।
निधि मिली जिसको न कुछके मेलकी,
उस अबुध के हाथ आया कुछ नहीं।
वह वृथा अनमोल जीवन खो रहा,
धर्म-धन जिसने कमाया कुछ नहीं।
अब निरन्तर मेल ‘शंकर’ से हुआ,
कर सकी अनमेल माया कुछ नहीं।