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सुमिरो ना मन / बुद्धिनाथ मिश्र

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चंदन के गाछ बने

हाशिए बबूल के

सुमिरो न मन मेरे

बीते दिन भूल के ।


एक हँसी झलकी थी होंठों पर

आग-सी

धुँआ-धुँआ हुई ज़िन्दगी

काले नाग-सी

अनगिनत विशाखाएँ

दहक उठीं याद की

पैताने सो गईं

दिशाएँ अनुराग की


पंखड़ियाँ नोच रहीं

आंधियाँ ख़ुमार की

टूटेंगे क्या रिश्ते

गंध और फूल के?


छूट गए दूर कहीं

इन्द्रधनुष नीड़ के

रेत-रेत दिखे

जहाँ जंगल थे चीड़ के

जुड़े हुए हाथ औ'

असीस की तलाश में

थके हुए पाँव

बुझे चेहरे हैं भीड़ के


तैर रही तिनके-सी

पतवारें नाव की

काँप रहे लहरों पर

साए मस्तूल के ।


विशाखा=सबसे अधिक दाहक क्षेत्र;

असीस=आशीर्वाद;

मस्तूल=नाव या जलयान के बीच में खड़ा वह ऊँचा स्तम्भ, जिस पर पाल पाल बांधा जाता है ।


(रचनाकाल :1980)