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हो जाइयो गुजरात / देवेन्द्र आर्य

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बस यहीं पर खा गए वे मात,
वरना आज़ादी और आधी रात ।

अबके आई इस तरह बरसात,
जैसे नादिरशाह के ज़ुल्मात ।

हुक्मरां होते रहे पैदा,
फिर न पैदा हो सका सुकरात ।

वोह अगर निकला मुसलमां तो ?
तो क्या ? तुम हो जाइयो गुजरात ।

देखी होती मीर की दिल्ली,
फिर न कहते आज के हालात...!

कुछ भी कह ले संविधान अपना,
बात से निकलेगी फिर भी बात ।