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एक नदी मेरे भीतर / राजेश श्रीवास्तव

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बहती है एक नदी मेरे भीतर।

मन के ही मौसम के अनुकूल
तरल करती है दृगों के कूल
यह नदी है अजस्र तरलता की
भीतर छिपी दमित सरलता की
कैसी ये त्रासदी मेरे भीतर।

एक है युधिष्ठिर, एक दुर्योधन
दो हिस्सों में बँटा है ये मन
जब भी यह दुर्योधन बचा है
उसने बस कुचक्र ही रचा है
नग्न है द्रौपदी मेरे भीतर।

कुछ भी नहीं किसी से कहती है
यह नदी बस चुपचाप बहती है
हर बार के वहशी जुनून में
सनी है यह अपने ही खून में
आहत है एक सदी मेरे भीतर।