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अवकाश वाली सभ्यता / रामधारी सिंह "दिनकर"

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मैं रात के अँधेरे में
सिताओं की ओर देखता हूँ
जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती है

अनागत से मुझे यह खबर आती है
की चाहे लाख बदल जाये
मगर भारत भारत रहेगा

जो ज्योति दुनिया में
बुझी जा रही है
वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी
यंत्रों से थकी हुयी धरती
उस रोशनी में चलेगी

साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवन्न मलई
ओर दक्षिणेश्वर,
ये मानवता के आगामी
मूल्य पीठ होंगे
जब दुनिया झुलसने लगेगी,
शीतलता की धारा यहीं से जाएगी

रेगिस्तान में दौड़ती हुयी सन्ततियाँ
थकने वाली हैं
वे फिर पीपल की छाया में
लौट आएँगी

आदमी अत्यधिक सुखों के लोभ से ग्रस्त है
यही लोभ उसे मारेगा
मनुष्य और किसी से नहीं,
अपने आविष्कार से हारेगा

गाँधी कहते थे,
अवकाश बुरा है
आदमी को हर समय
किसी काम में लगाये रहो
जब अवकाश बढ़ता है ,
आदमी की आत्मा ऊंघने लगती है
उचित है कि ज्यादा समय
उसे करघे पर जगाये रहो

अवकाशवाली सभ्यता
अब आने ही वाली है
आदमी खायेगा , पियेगा
और मस्त रहेगा
अभाव उसे और किसी चीज़ का नहीं ,
केवल काम का होगा
वह सुख तो भोगेगा ,
मगर अवकाश से त्रस्त रहेगा
दुनिया घूमकर
इस निश्चय पर पहुंचेगी

कि सारा भार विज्ञान पर डालना बुरा है
आदमी को चाहिए कि वह
ख़ुद भी कुछ काम करे
हाँ, ये अच्छा है
कि काम से थका हुआ आदमी
आराम करे