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साँकल / उमाशंकर चौधरी

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मेरे दरवाज़े पर
वह एक जो साँकल है,
बड़ी ही मनहूस है ।
जब भी वह बजती है
मेरी माँ चौंक जाती हैं
और पिता छिपने की जगह तलाशने लगते हैं ।

और मुझे एक बार फिर
झूठ बोलने के लिए तैयार होना होता है ।

घर में छिपे हुए पिता के बारे में
कहना पड़ता हैं-- वे अभी तो नहीं हैं।
और उस लेनदार की कड़ी आँखों की ज्वाला
मुझे अपने ऊपर सहनी होती है ।

मैं अब गाँव की पाठशाला नहीं जाना चाहता हूँ जहाँ
शिक्षक हमें झूठ नहीं बोलना सिखाते हैं ।

मैं चाहता हूँ बढ़ई का हुनर सीखना
ताकि एक दिन
उस मनहूस साँकल को ही हटा दूँ ।