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नमी / नीना कुमार
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पाँव रखना संभल कर भीगी ज़मी पर
दर्दे-दिल आबाद है अब इस नमी पर
हर बूँद से गिरती यहाँ इक दास्ताँ, पर
बरसेंगे कितना, है ये बादल मौसमी, पर
झील के भरने की अब खुशियाँ मना लो
ये तो मौसमे-रहमो-करम है आदमी पर
कुदरत को रोक पाए है कब ये ज़माना
हैरान हैं लेकिन ज़िन्दगी की बेदमी पर
ये कुदरत-ए-अंदाज़ समझ आया नहीं
नब्ज़ तो चलती है, धड़कन है थमी पर
क्यूँ गिला करते है हम, इस ज़्यादती पर
'नीना' हंस लें आज खुद की ही कमी पर