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निधरक तूने ठुकराया तब / जयशंकर प्रसाद

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निधरक तूने ठुकराया तब
         मेरी टूटी मधु प्याली को,
उसके सूखे अधर मांगते
         तेरे चरणों की लाली को.
जीवन-रस के बचे हुए कन,
         बिखरे अमर में आँसू बन,
वही दे रहा था सावन घन-
         वसुधा की हरियाली को .
निदय ह्रदय में हूक उठी क्या,
         सोकर पहली चूक उठी क्या,
अरे कसक वह कूक उठी क्या,
          झंकृत कर सुखी डाली को?
प्राणों के प्यासे मतवाले-
          ओ झंझा से चलने वाले!
ढलें और विस्मृति के प्याले,
          सोच न कृति मिटने वाली को.