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हिंसक रात चुपके-चुपके आती है / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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हिंसक रात चुपके-चुपके आती है
दुर्बल हुए शरीर की कमजोर कुण्डी को तोड़कर
अंतर में प्रवेश करती है .
जीवन के गौरव के रूप का हरण करती रहती है.
कालिमा के आक्रमण से मन हार मानता है.
इस पराजय की ग्लानि,इस अवसाद का अपमान
जब गाढ़ा हो उठता है,सहसा दिगंत में
स्वर्ण किरणों की रेखांकित पताका दीख जाती है
आसमान के मानो किसी दूर केन्द्र से
'मिथ्या-मिथ्या'की ध्वनि उठती है.
प्रभात के खुले प्रकाश में
अपनी जीर्ण-देह के दुर्ग शिखर पर
दुःख-विजयी की मूर्ति को देखता हूँ.

२१ जनवरी १९४१