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विचार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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हे मेरे सुन्दर,
चलते-चलते
रास्ते की मस्ती से मतवाले होकर,
वे लोग(जाने कौन हैं वे)जब तुम्हारे शरीर पर
धूल फेंक जाते हैं
तब मेरा अनन्त हाय-हाय कर उठता है,
रोकर कहता हूँ,हे मेरे सुन्दर,
आज तुम दण्डधर बनो,
(विचारक बनकर)न्याय करो.

फिर आश्चर्य से देखता हूँ,
यह क्या!
तुम्हारे न्यायालय का द्वार तो खुल ही हुआ है,
नित्य ही चल रहा है तुम्हारा न्याय विचार .

चुपचाप प्रभात का आलोक झड़ा करता है
उनके कलुष-रक्त नयनों पर;
शुभ्र वनमल्लिका की सुवास
स्पर्श करता है लालसा से उद्दीप्त निःश्वास को;
संध्या-तापसी के हाथों जलाई हुई
सप्तर्षियों की पूजा--दीपमाला
तकती रहती है उनकी उन्मत्तता की ओर--
हे सुन्दर,तुम्हारा न्यायालय (है)
पुष्प-वन में
पवित्र वायु में
तृण समूह पर(चलते रहने वाले)भ्रमर गुंजन में
तरंग चुम्बित नदी- तट पर
मर्मरित पल्लवों के जीवन में.