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जीवन देवता / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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हे अंतरतम,
क्या मेरे अंतर में आकर तुम्हारी सारी प्यास मिट गई है ?
अपने वक्ष को दलित द्राक्षा के समान निठुरता से निचोर कर
सुख-दुःख को लक्ष-लक्ष धाराओं से
तुम्हें पात्र भरकर दिया है मैंने.
कितने वर्णों,गंधों,रगों,और छन्दों को
गूँथ-गूँथकर तुम्हारी वासर शैय्या रची है--
तुम्हारे क्षणिक खेल के लिये प्रतिदिन
वासना का सोना गलाकर नित्य नई मूर्ति बनाई है.

तुमने न जाने क्या सोचकर
स्वयं मुझे वरण कर लिया था.
अंतरतम के निर्जन में निवास करते हुए
हे जीवन नाथ,क्या तुम्हें मेरी रात्रि,मेरा प्रभात,
मेरा क्रीड़ा कौतुक,मेरे काम-धाम अच्छे लगे है ?
क्या तुमने सुना है अपने सिंहासन पर अकेले बैठकर
वर्षा,शरद,वसन्त और शीत में
वह संगीत जिससे ध्वनित हुआ है मेरा ह्रदय ?
क्या तुमने अपने अंचल में मानस-कुसुम को चुनकर
माला गूंथी है,उसे गले में धारण किया है--
क्या तुमने मेरे यौवन के वन में इच्छापूर्वक भ्रमण किया है ?

क्या तुमने ध्यान से देखा है मेरे मर्म को ?
हे बन्धु क्या तुमने मेरी भूल-चूक
और पतन को क्षमा किया है ?
पूजाहीन दिन,सेवाहीन रात
हे नाथ कितनी बार आ आकर लौट गये हैं--
खिलकर झर गये हैं अर्ध्य-कुसुम बिजन वन में
वीणा के तार को जिस सुर में चढ़ाया था
वह बार-बार उतर गया है--
हे कवि क्या मैं
तुम्हारी रची हुई रागिनी गा सकता हूँ .
मैं तुम्हारे उपवन को सींचने के लिये गया
और छाया में लेकर सो गया,
और अब शाम होने पर
भर लाया हूँ आँखों में आंसुओं का जल.

हे प्राणेश जो कुछ मेरा था--
जितना सौन्दर्य,जितना संगीत
जितना प्राण,जागरण और घोर निद्रा
क्या वह सब चूक गया है ?
क्या बाहु-बंधन शिथिल पर गया है
क्या मेरा चुम्बन मदिरा-विहीन हो गया है,
क्या जीवन कुंज में अभिसार की रात्रि का भोर हो गया है ?
तो फिर आज की सभा भंग कर दो,
नया रूप नई शोभा लेकर आओ,
फिर से नूतन बनाकर ग्रहण करो मुझ चिर पुरातन को.
नूतन विवाह-बंधन से मुझे बाँधो नवीन जीवन डोर में.

११ फरवरी १८९६