Last modified on 24 सितम्बर 2012, at 10:17

जिससे कुछ चौंक पड़ें / फ़िराक़ गोरखपुरी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:17, 24 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह= }} [[Category:ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जिससे कुछ चौंक पड़ें सोई हुई तकदीरें.
आज होता है उन आँखों का इशारा भी कहाँ !

मैं ये कहता हूँ कि अफ़लाक से आगे हूँ बहुत.
इश्क़ कहता है अभी दर्दे-दिल उठ्ठा भी कहाँ.

राज़दाँ हाले-मोहब्बत का नहीं मैं, लेकिन.
तुमने पूछा भी कहाँ,मैंने बताया भी कहाँ.

तज़करा उस निगहे-नाज़ का दिल वालों में कहाँ.
दोस्तों,छेड़ दिया तुमने ये किस्सा भी कहाँ.

तेरा अंदाज़े-तगाफुल है खुला राज़,मगर.
इश्क़ की आँखों से उठता है ये पर्दा भी कहाँ.

ज़ब्त की ताब न थी फिरते ही वो आँख 'फिराक़'.
आज पैमाना-ए-दिल हाथ से छूटा भी कहाँ.