भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आह वो मंजिले-मुराद / फ़िराक़ गोरखपुरी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:35, 24 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह= }} [[Category:ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आह वो मंज़िले-मुराद,दूर भी है क़रीब भी.
देर हुई कि क़ाफ़िले उसकी तरफ़ रवाँ नहीं.

दैरो-हरम है गर्दे-राह,नक्शे-क़दम हैं मेहरो-माह.
इनमें कोई भी इश्क़ की मंज़िले-कारवाँ नहीं.

किसने सदा-ए-दर्द दी,किसकी निगाह उठ गई.
अब वो अदम अदम नहीं,अब ये जहाँ जहाँ नहीं.

आज कुछ इस तरह खुला,राज़े-सुकूने-दाइमी.
इश्क़ को भी खुशी नहीं,हुस्न भी शादमाँ नहीं.