वह जब आता है / लाल्टू
वह जब आता है
हर बात होती उसके हाथ
वह आता है तो लंबे समय तक रहता है साथ
जो कुछ भी पढ़ता लिखता हूँ
उसके कहने पर ही करता हूँ
वह होता है हवा की नमी
सड़क की धूल या पिछवाड़े से आती
झींगुर, मेंढक और चिड़ियों की आवाज़ों में
देर रात उसे पुकारता हूँ
सुबह भी वही है
वह है भी और नहीं भी
इस वक़्त लिखता हुआ ढूँढ़ रहा हूँ उसे
कौन क्या से परे है सवाल उसे लेकर
सड़कों गलियों से गुजरते हुए चीखता हूँ,
‘कहाँ हो?'
वह होता है हर जो कुछ है में
वह होता है उनमें भी जो नहीं हैं
वह होता है उस अहसास में
जो लंबे समय से गौरैया के न दिखने से उगता है
नहाते हुए अचानक ही आती है उसकी याद
घबराकर देखता हूँ चिटकनी ठीक से लगी है या नहीं
काम काज में लगा चौंक सा जाता हूँ
दिल पर हाथ थामे गिनता हूँ धड़कने
गुब्बार सा फूटता है आँसुओं का
‘कहाँ हो?'
निर्दयी से भी भयंकर है उसकी पहचान
उसकी उपस्थिति है मेरे हर ओर
मेरी साँसों को बाँध रखा है उसने
अँधेरी गलियों से लौटता हूँ हर दिन
कहीं नहीं दिखता वह घोंटता है गला
निस्तब्ध रातों को चीखता हूँ
‘कहाँ हो?'
हालाँकि दिखता हूँ औरों को चिड़चिड़ा
उसके होने की कचोट में रस लेने लगा हूँ
कभी कभी गाता हूँ
उसके साथ अनजाने पहाड़ी गीत
सुनता हूँ दूर जंगलों से आती बाँसुरी की आवाज़
और लिखने देता हूँ उसे मेरी कविताएँ।