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काश / धनराज शम्भु

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मन भारी-भारी सा
तन थका-थका सा
इच्छा कुछ मरी-मरी सी हो
तो ऐसे में प्यार कैसा
ऐसी स्थिति में
प्यार तो पलता ही नहीं
हृदय की भावनाएँ दब जाती हैं
और मानव मशीन हो जाता है
फिर उस में कल्पना कहाँ
भावना और प्रेम कहाँ
कल-पूर्जों की तहर हर अंग बन जाता
काम के सिवा कुछ सूझता नहीं
दिमाग अपाहिज और अप्राप्य चाहतें
ज़िंदगी को बोझ बनाने लगती हैं
प्यार तो हृदय की भावनाओं की
एक अछूती सुनहरी मुस्कान है
जो क्रोधाग्नि को भी शांत कर दे
जानवरों को भी नियम बद्ध कर दे
पत्थर-दिलों को भी पिघला दे
काश मानव यह समझ पाता
अपने जीवन का बोझ
स्वयं न बन पाता ।