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मेरी अपूर्ण कविता / जय जीऊत

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जो कविता जाने कब से
मैं तुझे समर्पित करना चाहता था
वह अभी तक अधूरी पड़ी है ।
मेरी अनसोई रातों की एकनिष्ठ एकाग्रता
मेरे अनसोये दिनों की अनथक तल्लीनता
मेरे क्षण-प्रतिक्षण का अनवरत जतन
सब अकारथ सिद्ध हुए
क्योंकि तेरा असीम गौरव
अंट नहीं पाते हैं
मेरे शब्द-भण्डार के सीमित घेरों में
और मेरी स्थिति
ठीक उस अभिमानी चितेरे सदृश हो जाती है
जो अपने चित्र के अधूरेपन पर
पहले खीझता-झुंझलाता है
फिर अपनी अल्पज्ञता पर लज्जित होकर
अपना सिर धुनता है ।
हे प्रभु तेरी महिमा अपरम्पार है
और मेरी लघुता का कोई आर-पार नहीं
मैं अपनी लघुता और अल्पज्ञता के कारण ही
वंचित बन रहा तेरे स्नेहिल सान्निध्य से
और अपने जीवन-पथ को कंटकमय बनता रहा ।
हे कृपानिधान ! अब तू मुझे शीघ्र उबार ले
और कुछ न सही
मेरी लेखनी में प्राण फूंककर
पूर्णता प्रदान करो मेरी अपूर्ण कविता को
ताकि जीवन के सान्ध्य-काल तक
तेरी इस महिमा-मण्डित कविता की बांह थामे
पार कर जाऊं इस भव-सागर को ।