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पाँच पैसों का सिक्का / अरविंदसिंह नेकितसिंह

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भगदड़ मच गई
सुबह-सुबह
शुरू हो गई रोना-धोना, चीखना-चिल्लाना
एक-एक करके सब
कभी इधर तो कभी उधर
फूफू, मामी, नानी सभी

आस-पड़ोस में
गूँजने लगी
चन्चनाहट सिक्कों की
तोड़े गए पीगी बैंक दादिओं के
और बनिए, हो गई उलट-पलट
उसकी तिजोरी की

फिर अचानक होने लगी प्रतिध्वनि
इन्जन का
तेज़ गति से जो मुड़ा पास के बैंक की ओर

वहाँ अब
पड़ा जेब के सौ के नोट थमा दिया
फिर भी न मिला
किन्तु था एक, दूर, शहर में ।
कुछ घण्टों, हस्ताक्षर और हज़ारों बाद
आखिर मिला वो पाँच पैसों का मोटा सिक्का

पर तब तक रोते-रोते
सो गई थी माथे पर लिए अपनी सूजन
छोटी सी उर्वी ।