गिरमिटिये मज़दूरों ने
अपनी नई धरती पर
मनाई थी पहली दीवाली ।
उस वक्त,
दीवाली की रोशनी ने
दी होगी उनमें
शक्ति -
वक्त की चोटें सहने की,
ज़ुल्म की मारें सहने की ।
इस ज्योति-पर्व ने
मिटाया होगा ।
क्षण-भर के लिए
निराशा के घोर अँधेरे को ।
उनके थके-हारे सपनों में
कृष्ण भी आए होंगे
द्रौपदियों की लाज बचाने के लिए ।
राम भी आए होंगे
वनवास के दिन साथ काटने के लिए ।
चिता जली होगी सीता की यहाँ भी -
अग्नि-परीक्षा देने के लिए ।
और हततेज अर्जुन को देखकर
कई बार कृष्ण
रथ-चक्र उठाकर
भीष्म पितमहों पर भी दौड़ पड़े होंगे ।
ये थे तो असहाय और विवश,
पर अन्यायी के आगे
घुटने टेक तो नहीं दिए थे ?
इस गन्ने के खेतों में
गूँज जाता है
आज भी हाहाकार
गिरमिटिये मज़दूरों का
और जगर-मगर हो जाती है ।
अँधेरे में
अनकी वह पहली दीवाली ।
उन दिनों के निविड़ अन्धकार में
तलाश थी उनको
प्रकाश के कुछ कणों की ।
वे यही सोचा करते थे
कि उनका बहता हुआ पसीना
उन दीपों के लिए तेल का काम करेगा ।